Friday, February 5, 2010

एक खुली हुई खिड़की





एक खुली हुई खिड़की है ....
मेरे मन के घर के आँगन में ....
ठहरी हुई है ...
पट पर तेरे राह देखते ...
मेरे आंसू रुके हुए है ...
की तू आये और खिड़की खोल दे....

एक खुली खिड़की है ..
जिसमे से मुझे तू नज़र आती है ...
दिन रात और सुबह शाम ...
हर पल ..हर ख्याल ...
बस तुम ही तुम होती हो , वहां ...कोई और नहीं

मैं सारा दिन तेरे साए में गुजार देता हूँ
मैं सारी रात तेरी याद में जाग लेता हूँ
और एक मौन के साथ उस खिड़की को देखता हूँ ..
पता नहीं कितने जन्मो की ये प्यास है ;
जो तुझे देखकर भी नहीं ख़त्म होती है ,
तुझे छूकर भी नहीं बुझती ...
तुझे पाकर भी नहीं ख़त्म होती है ......
मैं खिड़की से तेरा हाल पूछता हूँ ...

एक खुली हुई खिड़की ...जिसमे से तुम झांकती रहो ;
और मुझे देखती रहो ...और बस सिर्फ देखती रहो ....
तुम जानती हो न , मुझे तुम्हे देखना कितना पसंद है ...

एक खुली हुई खिड़की जिसमे तेरा प्यार टंगा रहे
एक मासूम से रिश्ते की डोर के सहारे ...
और मैं उस डोर के कोनो से बंध कर जी लूं ...

एक खुली हुई खिड़की ,जिसमे से तेरी खिलखिलाती हुई हंसी
मेरे मन के भीतर उतरती रहे ...हमेशा की तरह
सूरज की रौशनी की तरह या फिर निर्मल चांदनी की तरह ...

एक खुली हुई खिड़की ,जिसमे से धीमे धीमे तेरे हाथो का जादू
उतरे मेरे तन-मन के आँगन में
और मुझे छुए और कहे की तू आयी है ...

एक खुली सी खिड़की , जिसमे से उस पार के पत्तो और सूरज की
आँख मिचोली की छाया ,तेरे मेरे चेहरे पर पड़ती रहे ...
और मैं उस खुदा को शुक्रिया करू ..जिसने तुझे मुझे दिया

एक खुली हुई खिड़की ,
जिसमे से बड़े हौले से तेरी मीठी सी आवाज आये
मेरे दिल पर दस्तक दे
और कहे की , 
मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ .....