Saturday, October 16, 2010

जानू की ये प्रेम है..


क्या तुम परछाईयों के देश से आयी हो
क्या तुम प्रेम की परछाई हो
क्या तुम मेरा प्रेम हो
क्या तुम "मैं " हो ...............

जीवन के इस उतारार्ध में ;
तुमने कैसी है ये ज्योत जगायी
की सारे के सारे उजाले इस ज्योत के आगे फीके है ..
नगण्य है ...क्षीण है ..अँधेरे है ...

क्या ये प्रेम की ज्योत है
क्या ये समर्पण है ..
क्या ये आधार है ....
मुझे तुम अपनी साँसों में मिला दो
तो जानू की ये प्रेम है
मुझे तुम अपनी राहो में बिछा दो
तो जानू की ये प्रेम है
मुझे तुम अपने आप में समा लो
तो जानू की ये प्रेम है..

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