Saturday, October 16, 2010

दास्ताँ............



कोई राह ऐसी होती जो ;
तुझ तलक जाकर ख़त्म होती
कोई दरवाजा ऐसा होता , 
जो तू खोले ; मेरे लिए
कोई घर ऐसा बना हो कहीं पर
जहाँ तू रहे और मैं रहूँ !

दुनिया के बंधन अब मुझे डसने लगे है
तेरी यादो के उजाले मुझे बुलाते है
तू खड़ी होती है कहीं ;
अपनी बाहों को फैलाए हुए ..
मुझे पुकारते हुए !

यूँ ही शायद  किसी रोज़ हम मर जायेंगे
फिर लोग कहा करेंगे ...

हाँ , बहुत प्यार करते थे दोनों.......
बड़ी अच्छी दास्ताँ थी यारो.............

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